हमारी नन्ही परी

हमारी नन्ही परी
पंखुरी

Tuesday, May 3, 2011

समझदार हो रही है बिटिया...

इस बार बेटी के बहाने कुछ हमारे मन की बातें....

इस ब्लॉग का असली रंग है  हमारी पंखुरी बेटी की मासूम बातें , भोली शरारतें , नटखट अदाएं और उनकी तोतली भाषा में की गयीं वो सारी प्यारी बातें जो वो हमसे करती हैं . इस ब्लॉग का उद्देश्य है इन सारी अनमोल अनुभूतियों को उकेर देना... 
लेकिन ईमानदारी से कहूं ऐसा शब्दशः हो नहीं पाता. विशेषकर ज्यों-ज्यों पंखुरी बड़ी हो रहीं हैं उनके रंग समेटने के लिए मानों हमारी लेखनी की  सामर्थ्य छोटी होती जा रही है. जब तक उनके साथ रहो...हर पल में इतना कुछ होता है कि समझना मुश्किल है कि क्या लिखें ,क्या छोड़ दें . 



बेटी के बड़े और समझदार होने की प्रक्रिया में कितने ही खूबसूरत पल आते हैं जो जाने कितना कुछ सिखा भी जाते हैं . कभी-कभी पंखुरी के समझदार होने की ये प्रक्रिया मन में टीस भी पैदा करती है.अब हम उसको सिखा रहे हैं - अग्गा नहीं दाल...मम्म नहीं पानी ...ओई नहीं चिड़िया...नूनू नहीं मोज़े...एम्मी नहीं आइसक्रीम...निन्ना नहीं मंदिर...(ये सब शब्द भी बेटी का ही अविष्कार हैं)
 अगले साल से स्कूल जाने की तैयारी का पहला चरण है ये...और कमाल पंखुरी बेटी की ग्राह्य क्षमता का......... कि एक बार बताई बात उन्हें तुरंत याद हो जाती है. 


...लेकिन उनके सब सही-सही सिखाते जाने की प्रक्रिया कहीं चुभती सी है. महसूस होता है कि धीरे-धीरे बेटी सब कुछ शुद्ध बोलना सीख लेगी.सब समझने लगेगी.अच्छे-बुरे ,सही-गलत ,नहीं-हाँ के बीच के भेद को जान लेगी.  मासूमियत , भोलापन और नटखट शरारतें धीरे-धीरे  समझदारी, दुनियादारी,  परफेक्शन और परिपक्वता में तब्दील हो जाएँगी ...(जैसा हम चाहते  भी हैं) और फिर ये मासूम बचपन एक अनमोल धरोहर सा बस हमारी स्मृतियों में संचित हो जायेगा.
सबके बड़े होने की प्रक्रिया तो यही होती है. हमारी भी यही रही होगी ...ये सोच कर मन इस अजब एहसास की टीस से छुटकारा पाने की कोशिश करता है.
सच इंसान को बड़ा और समझदार होने की कीमत कितनी अमूल्य  चीज़ देकर चुकानी पड़ती है...पंखुरी  से ही अनजाने में ये बात भी जानी-सीखी है हमने. 



हाँ सचमुच बहुत तकलीफदेह एहसास है बचपन का खो जाना...और बहुत मुश्किल है - बड़े होते जाने और दुनियादार बनते जाने की सख्त प्रक्रिया के बीच अपने बचपन और मन के किसी कोने में दुबके भोलेपन-मासूमियत को बचाए रखना ...
जाने कैसे...लेकिन हम तो कर पाए हैं ऐसा ...
जो कुछ छूटने लगा था वो पंखुरी से मिल कर फिर वापस आ गया है...


ऐसे में जब समय को रोक पाना न तो संभव है... न ही उचित...
ईश्वर से पंखुरी बेटी के लिए, उसकी बुआ यानी मेरी  यही प्रार्थना है कि...
चाहे वक्त कितना भी आगे क्यों न बढ़ जाए ...समझदारी कितनी भी धारदार क्यों न हो जाए ....
हमारी पंखुरी बेटी की मासूमियत, 
दिलकश मुस्कान,
 निश्छल झरने सी खिलखिलाहट ,
 संवेदनशीलता,
 कोमलता 
और सबको अपने स्नेहमय पाश में बाँध लेने की जादुई सामर्थ्य हमेशा-हमेशा ऐसी ही बनी रहे.
उसकी अच्छाई-सच्चाई और निश्छलता को किसी की नज़र न लगे.

आमीन...
   

5 comments:

  1. बिलकुल सही बात कही आपने.पंखुरी और इनके जैसे छोटे बच्चों के ब्लॉग पर जाकर मैं भी अपने बचपन में कहीं खो सा जाता हूँ.बचपन को जितना अच्छा जिया जाए ये दिन उतने ही यादगार बन जाते हैं.

    पंखुरी को ढेर सारा प्यार!!!

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  2. विरोधाभास से भरी ये भावनाएँ सचमुच दिल को कहीं गहरे कचोटती हैं...बढ़ते रहने की सतत प्रक्रिया में बहुत कुछ, बहुत ही सुन्दर, बहुत ही प्यारा कहीं पीछे छूटता जाता है, हर मोड़ पर वो पीछे खीचता है..पुकारता है...लेकिन आगे बढ़ना ही प्रकृति का नियम है और पीछे छूटे पलों को बस खूबसूरत य़ादों के रूप में संचित कर पाना ही हमारे अख्तियार में है..और प्रकृति के इस नियम के आगे सिर झुकाना हमारी नियति...ऐसे में हम बस यही दुआ कर सकते हैं कि ये नन्हे मासूम खूब बढ़े..खूब पढ़े..ढेरों तरक्की करें..लेकिन बुराइयों के तम से दूर रहकर ताउम्र अपनी अच्छाई और सच्चाई की निर्मल रोशनी से पूरी दुनिया को आलोकित कर,विश्वपटल पर एक जगमगाता सितारा बन सदैव चमकते रहें....आमीन!

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  3. धन्यवाद कल्पना...मेरे भावों को कुछ और शब्द देने के लिये !

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